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ओशो साहित्य >> बोलै शेख फरीद

बोलै शेख फरीद

ओशो

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :176
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3678
आईएसबीएन :81-7182-391-2

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फरीद खालिस प्रेम हैं। प्रेम को समझ लिया तो फरीद को समझ लिया फरीद को समझ लिया तो प्रेम को समझ लिया।

Bolai Shekh Farid a hindi book by Osho - बोलै शेख फरीद - ओशो

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

एक चलता-फिरता रहस्य जब भरे बाजार में आकर सोए हुए लोगों को जगाने लगता है तो नींद से अलसायी आँखें खोलकर वे नाराजगी से देखने की कोशिश करते हैं; कौन है यह ? इसे क्या हक है हमें जगाने का ? दिखता तो हमारे जैसा है, फिर भी बड़ा भिन्न है। अगर सच में ही ओशो का परिचय पाना हो तो तत्काल ओशो के साथ चल पड़ना। और ओशो के साथ चलने का मतलब है : प्रतिपल नया होना। अपनी सूली अपने साथ ही रखनी पड़ती है।

बोलै शेख फरीद

शेख फरीद प्रेम के पथिक हैं। और जैसा गीत फरीद ने गाया है, वैसा किसी ने नहीं गाया। कबीर भी प्रेम की बात करते हैं, लेकिन ध्यान की भी बात करते हैं, दादू भी प्रेम की बात करते हैं, लेकिन ध्यान की बात को बिलकुल भूल नहीं जाते, नानक भी प्रेम की बात करते हैं, लेकिन वह ध्यान से मिश्रित हैं। फरीद ने शुद्ध प्रेम के गीत गाए है, ध्यान की बात ही नहीं की है; प्रेम में ही ध्यान जाना है। इसलिए प्रेम की इतनी शुद्ध कहानी कहीं और न मिलेगी। फरीद खालिस प्रेम हैं। प्रेम को समझ लिया तो फरीद को समझ लिया फरीद को समझ लिया तो प्रेम को समझ लिया।

सूत्र


बोले सेखु फरीदु पियारे अलह लगे।
इहु तुनु होसी खाक निमाणी गोर घरे।।
आजु मिलावा सेख फरीद टाकिम।
कूंजड़ीआ मनुहु मचिंदड़ीआ।।
जे जाणा मरि जाइए घुमि न आइए।
झूठी दुनिया लागि न आपु व आइए
बोलिए सचु धरमु न झूठ बोलिए।
जो गुरु दसै वाट मुरीद जोलिए।।
छलै लंघरे पार गोरी मनु धीरिआ ।।
कंचन वंने पासे कलवति चीरिआ।।
सेख हैयाती जगि न कोई थिरु रहिआ।
जिसस आसणि हम बैठे केते वैसि गइया।।
कातिक कूंजां चेति डउ सावणि बिजुलीआं।
सीआले सहंदीआं पिर गलि बहाड़ीआं।।
चले चलणहार विचारा लेइ मनो।
गंढेदिआं छिअ माह तुरंदिआ हिकु खिनो।।
जिमी पुछै असमान फरीद खेवट किनी गए।
जारण गोरा नालि उलामे जीअ सहे।।


प्रेम और ध्यान-दो शब्द जिसने ठीक से समझ लिए, उसे धर्मों के सारे पथ समझ में आ गए। दो ही मार्ग हैं। एक है प्रेम का, हृदय का। एक मार्ग है ध्यान का, बुद्धि का। ध्यान के मार्ग पर बुद्धि को शुद्ध करना है- इतना शुद्ध कि बुद्धि शेष ही न रह जाए। प्रेम के मार्ग पर हृदय को शुद्ध करना है- इतना शुद्ध कि हृदय खो जाए। दोनों ही मार्ग से शून्य उपलब्धि करनी है, मिटना है। कोई विचार को काट-काटकर मिटेगा; कोई वासना को काट-काटकर मिटेगा।
प्रेम है वासना से मुक्ति। ध्यान है विचार से मुक्ति। दोनों ही तुम्हें मिटा देंगे; और जहाँ तुम नहीं हो, वहीं परमात्मा है।
ध्यानी ने परमात्मा के लिए अपने शब्द गढ़े हैं-सत्य, मोक्ष निर्वाण; प्रेमी ने अपने शब्द गढ़े हैं। परमात्मा प्रेमी का शब्द है। सत्य ध्यानी का शब्द है। पर भेद शब्दों का है। इशारा एक ही तरफ है। जब तक दो हैं, तब तक संसार है; जैसे ही एक बचा, संसार खो गया।
शेख फरीद के पथिक हैं, और जैसा प्रेम का गीत फरीद ने गाया है वैसा किसी ने नहीं गाया। कबीर भी प्रेम की बात करते हैं लेकिन ध्यान की बात को बिल्कुल भूल नहीं जाते। नानक भी प्रेम की बात करते हैं, लेकिन वह ध्यान से मिश्रित है। फरीद ने शुद्ध प्रेम के गीत गाए है; ध्यान की बात ही नहीं की है; प्रेम में ही ध्यान जाना है। इसलिए प्रेम की इतनी शुद्ध कहानी कहीं और न मिलेगी। फरीद खालिस प्रेम हैं। प्रेम को समझ लिया तो फरीद को समझ लिया। फरीद को समझ लिया तो प्रेम को समझ लिया।
प्रेम के संबंध में कुछ बातें मार्गसूचक होंगी, उन्हें पहले ध्यान में ले लें। पहली बातः जिसे तुम प्रेम कहते हो, फरीद उसे प्रेम नहीं कहते तुम्हारा प्रेम तो प्रेम का धोखा है। वह प्रेम है नहीं, सिर्फ प्रेम की नकल है, नकली सिक्का है; और इसलिए तो उस प्रेम से सिवाय दुःख के तुमने कुछ और नहीं जाना है।
कल ही फ्रांस से आई एक संन्यासिनी इसे रात पूछती थी कि प्रेम में बड़ा दुःख है, आप क्या कहते हैं ? जिस प्रेम को तुमने जाना है, उसमें बड़ा दुःख है इसमें कोई शक नहीं। लेकिन वह प्रेम के कारण नहीं है वह तुम्हारे कारण है। तुम ऐसे पात्र हो कि अमृत विष हो जाता है। तुम अपात्र हो इसलिए प्रेम भी विषाक्त हो जाता है। फिर उसे तुम प्रेम कहोगे तो फरीद को समझना बहुत मुश्किल हो जाएगा; क्योंकि फरीद तो प्रेम के आनंद की बातें करेंगा; प्रेम का नृत्य और प्रेम की समाधि और प्रेम में ही परमात्मा को पाएगा। और तुमने तो प्रेम में सिर्फ दुःख ही जाना है; चिंता, कलह, संघर्ष ही जाना है। प्रेम में तुमने एक तरह की विकृत रुग्ण दशा ही जानी है। प्रेम को तुमने नर्क की तरह जाना है। तुम्हारे प्रेम की बात ही नहीं हो रही है।
जिस प्रेम की फरीद बात कर रहा है, वह तो तभी पैदा होता है, जब तुम मिट जाते हो। तुम्हारी कब्र पर उगता है फूल, उस प्रेम का। तुम्हारी राख से पैदा होता है, वह प्रेम। तुम्हारा प्रेम तो अहंकार की सजावट है। तुम प्रेम में दूसरे को वस्तु बना डालते हो। तुम्हारे प्रेम की चेष्टा में दूसरों की मालकियत है। तुम चाहते हो, तुम जिसे प्रेम करो, वह तुम्हारी मुट्ठी में बंद हो, तुम मालिक हो जाओ। दूसरा भी यही चाहता है। तुम्हारे प्रेम के नाम पर मालकियत का संघर्ष चलता है।
जिस प्रेम की फरीद बात कर रहा है, वह ऐसा प्रेम है, जहाँ तुम दूसरे को अपनी मलकियत दे देते हो, जहाँ तुम स्वेच्छा से समर्पित हो जाते हो, जहाँ तुम कहते हो : तेरी मर्जी। संघर्ष का तो कोई सवाल नहीं है।
निश्चित ही ऐसा प्रेम दो व्यक्तियों के बीच नहीं हो सकता। ऐसा प्रेम दो सम स्थिति में खड़ी हुई चेतनाओं के बीच नहीं हो सकता, ऐसे प्रेम की छोटी–मोटी झलक शायद गुरु के पास मिले; पूरी झलक तो परमात्मा के पास ही मेलेगी। ऐसा प्रेम पति-पत्नी का नहीं हो सकता, मित्र-मित्र का नहीं हो सकता। दूसरा जब तुम्हारे ही जैसा है तो तुम कैसे अपने को समर्पित कर पाओगे ? संदेह पकड़ेगा मन को। हजार भय पकड़ेंगे मन को। यह दूसरे पर भरोसा हो नहीं सकता कि सब छोड़ दो, कि कह सको कि तेरी मर्जी मेरी मर्जी है। इसकी मर्जी में बहुत भूल-चूक दिखाई पड़ेगी। यह तो भटकाव हो जाएगा। यह तो अपने हाथ से आँखें फोड़ लेना होगा। ऐसे ही अँधेरा क्या कम है, आँखें फोड़कर तो और मुश्किल हो जाएगी। यह तो अपने हाथ में जो छोटा-मोटा दीया है बुद्धि का, वह भी बुझा देना हो जाएगा। यह तो निर्बुद्धि में उतरना होगा। यह संभव नहीं है।
मनुष्य और मनुष्य के बीच प्रेम सीमित ही होगा तुम छोड़ोगे भी तो सशर्त छोड़ोगे। तुम अगर थोड़ी दूसरे को मालकियत भी दोगे तो भी पूरी न दोगे, थोड़ा बचा लोगे-लौटने का उपाय रहे; अगर कल वापस लौटना पडे, समर्पण को इनकार करना पड़े तो तुम लौट सको; ऐसा न हो कि लौटने की जगह न रह जाए। सीढ़ी को मिटा न दोगे, लगाए रखोगे।
साधारण प्रेम बेशर्त नहीं हो सकता। अनकंडिशनल नहीं हो सकता। और प्रेम जब तक बेशर्त न हो, प्रेम नहीं होता। तुमने ऊपर कोई, जिसे देखकर तुम्हें आकाश के बादलों का स्मरण आए, जिसकी तरफ तुम्हें आँखें उठानी हों तो जैसे सूरज की तरफ कोई आँख उठाए, जिसके बीच और तुम्हारे बीच एक बड़ा फासला हो, एक अलंघ्य खाई हो, जिससे तुम्हें परमात्मा की थोड़ी-सी प्रतीति मिले-उसको ही हमने गुरु कहा है।
गुरु पूरब की अनूठी खोज है। पश्चिम इस रस से वंचित ही रह गया है; उसे गुरु का कोई पता नहीं है। वह आयाम जाना ही नहीं पश्चिम ने। पश्चिम को दो मित्रों का पता है, शिक्षक-विद्यार्थी का पता है, पति-पत्नी का पता है, प्रेमी-प्रेयसी का पता है; लेकिन फरीद जिसकी बात करेगा-गुरू और शिष्य-उसका कोई पता नहीं है।
गुरू और शिष्य का अर्थ है, कोई ऐसा व्यक्ति, जिसके भीतर से तुम्हें परमात्मा की झलक मिली, जिसके भीतर तुमने आकाश देखा, जिसकी खिड़की से तुमने विराट् में झाँका। उसकी खिड़की छोटी हो-खिड़की को बड़े होने की कोई जरूरत भी नहीं है, लेकिन खिड़की से जो झाँका, वह आकाश था। तब समर्पण हो सकता है। तब तुम पूरा अपने को छोड़ सकते हो।
धर्म की तलाश मूलतः गुरू की तलाश है, क्योंकि तुम धर्म को और कहाँ देख पाओगे ? और तुम जहाँ जाओगे, अपने ही जैसा व्यक्ति पाओगे। तो अगर तुम्हारे जीवन से ऊपर आँखें उठती हों जिसे देखकर तुममें दूर के सपने, आकांक्षा, अभीप्सा भर जाती हो, जिसे देखकर तुम्हें आकाश का बुलावा मिलता हो, निमंत्रण मिलता हो-और इसकी कोई फ्रिक मत करना कि दुनिया उसके संबंध में क्या कहती है, यह सवाल नहीं है-तुम्हें अगर इस खिड़की से कुछ दर्शन नहीं हुआ हो तो ऐसे व्यक्ति के पास समर्पण की कला सीख लेना। उसके पास तुम्हें पहले पाठ मिलेगें, प्राथमिक मिलेंगे-अपने को छोड़ने के। वे ही पाठ परमात्मा के पास काम आएँगे।
गुरु आखिरी नहीं है गुरू तो मार्ग है। अंततः तो गुरू हट जाएगा, खिड़की भी हट जाएगी-आकाश ही रह जाएगा। जो खिड़की आग्रह करे, हटे न, वह तो आकाश और तुम्हारे बीच बाधा हो जाएगी; वह तो सेतु न होगी, विघ्न हो जाएगा।
जिस प्रेम की फरीद बात कर रहे हैं, उसकी झलक तुम्हें कभी गुरू के पास मिलेगी। तुम मुझसे पूछोगे कि हम कैसे गुरु को पहचानें ? मैं तुमसे कहूँगा : जहाँ तुम्हें ऐसी झलक मिल जाए। उसके अतिरिक्त कोई कसौटी नहीं है। गुरु की परिभाषा यह है कि जहाँ तुम्हें विराट् की थोड़ी-सी भी झलक मिल जाए, जिस बूँद में तुम्हें सागर का थोड़ा-सा स्वाद मिल जाए, जिस बीज में तुम्हें संभावनाओं के फूल खिलते हुए दिखाई पड़ें। फिर ध्यान मत देना कि दुनिया क्या कहती है, क्योंकि दुनिया का कोई सवाल नहीं है। जहाँ तुम खड़े हो, वहाँ से हो सकता है, किसी खि़ड़की से आकाश दिखाई पड़ता हो, जहाँ दूसरे खड़े हों, वहा से उस खिड़की के द्वारा आकाश न पड़ता हो। यह भी हो सकता है कि तुम्हारे बगल में खड़ा हुआ व्यक्ति खिड़की की तरफ पीठ करके खडा़ हो, और उसे आकाश न दिखाई पड़े। यह भी हो सकता है कि किन्हीं क्षणों में तुम्हें आकाश दिखाई पड़े और किन्हीं क्षणों में तुम्हें भी आकाश दिखाई न पडे। क्योंकि जब तुम ऊँचाई पर रहोगे और तुम्हारी आँखें आँसुओं से भारी होंगी, पीड़ा दुःख से दबी होंगी-तब खिड़की भी क्या करेगी ? अगर आँखें ही धूमिल हों तो खिड़की आकाश न दिखा सकेगी : खिड़की खुली रहेगी, तुम्हारे लिए बंद हो जाएगी तुम्हें भी आकाश तभी दिखाई पड़ेगा जब आँखे खुली हों और भीतर होश हो। आँख भी खुली हो और भीतर बेहोशी हो तो खिड़की व्यर्थ हो जाएगी।
तो ध्यान रखना, जिसको तुमने गुरू जाना है, वह तुम्हें भी चौबीसों घंटे गुरू नहीं मालूम होगा। कभी-कभी, किन्हीं ऊँचाइयों के क्षण में, किन्हीं गहराईयों के मौके पर, कभी तुम्हारी आँख, तुम्हारे बोध की खिड़की का तालमेल हो जाएगा, और आकाश की झलक आएगी। वही झलक रूपांतकारी है। तुम उस झलक पर भरोसा रखना। तुम अपनी ऊँचाई पर भरोसा रखना।
अगर ठीक से समझा तो गुरू भरोसा अपनी ही जीवनदशा की ऊँचाई में हुई अनुभूतियों पर भरोसा है। संदेह अपनी ही जीवनदशा की नीचाइयों पर भरोसा है। श्रद्धा अपनी ही प्रतीति की ऊँचाइयों पर भरोसा है और तुम्हारे भीतर दोनों हैं। कभी इतने नीचे हो जाते हो जैसे पत्थर, बिलकुल बंद, कही कोई रंध्र नहीं रह जाती है कि तुम्हें अपने से पार की कोई झलक मिले। कभी तुम खुल जाते हो, जैसे खिलता हुआ फूल, और तुम्हारी पंखुरियों पर सूरज नाचता है, और तुम्हारे पराग से आकाश का मेल होता है। लेकिन जहाँ तुम्हें झलक मिल जाए, वहाँ से सीख लेना परमात्मा के पाठ, क्योंकि प्रेम की पहली खबर वहीं होगी, वहाँ तुम झुक सकोगे। जहाँ तुम झुक सको वहीं घर्म की शुरुआत है।
लोग कहते हैं, मंदिर में जाओ और झुको; और मैं तुमसे कहता हूँ, जहाँ तुम्हें झुकना हो जाए, वहीं समझ लेना मंदिर है। जिसके पास झुकना सहजता से हो जाए, जरा भी प्रयास न करना पड़े, झुकना आनंदपूर्ण हो जाए, लड़ना न पड़े भीतर-वहाँ तुम्हें प्रेम की पहली खबर मिलेगी; वहाँ तुम्हें पहली बार पता चलेगा कि प्रेम दान है-वस्तुओं का नहीं, धन का नहीं, अपना स्वयं का।
प्रेम माँग नहीं है। जहाँ माँग है, वहाँ प्रेम धोखा है; फिर वहाँ कलह है। अगर गुरु से भी तुम्हारी कोई माँग है कि समाधि मिले, परमात्मा मिले-अगर कोई ऐसी माँग हो तो तुम वहाँ भी सौदा कर रहे हो, वहाँ भी व्यवसाय जारी है; प्रेम की तुम्हे समझ न आई।

गुरु के पास कोई माँग नहीं है। तुम गुरु को धन्यवाद देते हो कि उसने तुम्हारे समर्पण को स्वीकार कर लिया। फिर समाधि तो छाया की तरह चली जाती है। जहाँ समर्पण है, वहाँ समाधि आ ही जाएगी; उसके विचार की कोई जरूरत नहीं है, विचार किया, रुक जाएगी, असंभव हो जाएगी। क्योंकि विचार से ही खबर मिल जाएगी कि समर्पण नहीं है। और तुम्हारा मन इतना चालाक है, कानूनी है, गणित से भरा है कि तुम्हें पता रहता कि वह किस तरह का धोखा देता है !

वंदना मराठी में एक पत्रिका मेरे लिए निकालती है–योगदीप। सुंदर है। कल मैं उसे देखता था। उसने बड़ी मेहनत वर्षों से की है और पत्रिका को बड़े मापदंड पर उठाया है। लेकिन जबसे उसने निकाली है पत्रिका, तबसे मैं एक छोटा-सा व्क्तव्य उसमें हमेशा देखता हूँ। उस पत्रिका में सिर्फ मेरे ही विचार वह छापती है, लेकिन जहाँ संपादकों के नाम हैं, वहाँ उसने एक पंक्ति लिख रखी है कि इस पत्रिका में प्रकाशित विचारों से संपादक की सहमति अनिवार्य नहीं है।

प्रेम दुस्साहस है। वह ऐसी छलांग है, जिसमें तुम कल का विचार नहीं करते। जब तुम जाते हो तो तुम पूरे ही साथ जाते हो, या नहीं जाते, क्योंकि आधा-आधा क्या जाना ! ऐसे तो तुम ही कटोगे और मुश्किल में पड़ोगे। जैसे आधा शरीर तुम्हारा मेरे साथ चला गया और आधा घर रह गया, तो तुम्हीं कष्ट पाओगे। इसमें मेरा कोई हर्ज नहीं है। लेकिन तुम्हीं दुविधा में रहोगे। या तो पूरे घर रह जाओ या पूरे साथ चल पड़ो। जरा-सी भी माँग हो, खंडित हो गए !

तुमने कभी ख्याल किया ?-जहाँ भी माँग आती है, वहीं तुम छोटे हो जाते हो; जहाँ माँग नहीं होती, सिर्फ दान होता है, वहाँ तुम भी विराट् होते हो। जब तुम्हारे मन में कोई माँगने का भाव ही नहीं उठता, तब तुममें और परमात्मा में क्या फासला है ? इसलिए तो बुद्धपुरुषों ने निर्वासना को सूत्र माना; कि जब तुम्हारी कोई वासना न होगी, तब परमात्मा तुममे अवतरित हो जाएगा।
परमात्मा तुममें छिपा ही है, केवल वासनाओं के बादल में घिरा है। सूरज मिट नहीं गया है, सिर्फ बादलों में घिरा है। वासना के बादल हट जाएँगे : तुम पाओगे, सूरज सदा से मौजूद था।
गुरू के पास प्रेम का पहला पाठ सीखना, बेशर्त होना सीखना, झुकना और अपने को मिटाना सीखना। माँगना मत। मन बहुत माँग किए चला जाएगा, क्योंकि मन की पुरानी आदत है। मन भिखमंगा है। सम्राट का मन भी भिखमंगा है; वह भी माँगता है।

आत्मा सम्राट् है, वह माँगती नहीं। जिस दिन तुम प्रेम में इस भाँति अपने को डालते हो कि कोई माँग की रेखा भी नहीं होती, उसी क्षण तुम सम्राट हो जाते हो। प्रेम तुम्हें सम्राट् बना देता है। प्रेम के बिना तुम भिखारी हो। वही तुम्हारा दुःख है।
दूसरी बात जब फरीद प्रेम की बात करता है तो प्रेम से उसका अर्थ है-प्रेम का विचार नहीं, प्रेम का भाव। और दोनों में बड़ा फर्क है। तुम जब प्रेम करते हो, तब तुम सोचते हो कि तुम प्रेम करते हो। यह हृदय का सीधा संबंध नहीं होता, उसमें बीच में बुद्धि खड़ी होती है।
मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, हमारा किसी से प्रेम हो गया है। मैं कहता हूँ-ठीक से कहो, सोचकर कहो। वे थोड़े चिंतित हो जाते हैं। वे कहते हैं, हम सोचते है कि प्रेम हो गया है; पक्का नहीं, हुआ कि नहीं, लेकिन विचार आता है कि प्रेम हो गया है।

प्रेम का कोई विचार आवश्यक है ? तुम्हारे पैर में काँटा गड़ता है तो तुम्हारा बोध सीधा होता है कि पैर में पीड़ा हो रही है। ऐसा थोड़े ही तुम कहते हो कि हम सोचते हैं कि शायद पैर में पीड़ा हो रही है। सोच-विचार को छेद देता है, काँटा आर-पार निकल जाता है। जब तुम आनंदित होते हो तो क्या तुम सोचते हो कि तुम आनंदित हो रहे हो, या कि तुम सिर्फ आनंदित होते हो ? जब तुम दुःखी होते हो तब सोचते हो-कोई प्रियजन चल बसा, छोड़ दी देह, मरघट पर विदा कर

आए-जब तुम रोते हो तब तुम सोचते हो कि दुःखी हो रहे हो, या कि दुःखी होते हो ? दोनों में फर्क है। अगर सोचते हो कि दुःखी हो रहे हो तो दुखी हो ही नहीं रहे, शायद दिखावा होगा। समाज के लिए आँसू भी गिराने पड़ते हैं। दूसरों को दिखाने के लिए हँसना भी पड़ता है, प्रसन्न भी होना पड़ता है; लेकिन तुम्हारे भीतर कुछ भी नहीं हो रहा है। लेकिन जब तुम्हारे भीतर दुःख हो रहा है तो विचार बीच में माध्यम नहीं होता यह सीधा होता है।

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